Sunday, 20 November 2011
भीड़ में अकेला
Sunday, 2 October 2011
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सरकारी उपेक्षा
साहित्य : दुनियादारी
Friday, 30 September 2011
ऐनक
एक मैंने
अपने बच्चे को खरीद कर दी
उसकी जिद्द थी
दुनिया को रंगीन
देखने की.
दुकान पर की रंगीन ऐनकें
बारी-बारी से चढ़ा
अपनी आखों पर
कभी हँसता
कभी ताली बजाता.
सफ़ेद शीशे वाली ऐनक
पहनकर उसने पाया
'दुनिया रंगीन अच्छी नहीं लगती
साफ़-सफ़ेद अच्छी लगती है
बिना ऐनक के सुन्दर दिखती है'.
Friday, 9 September 2011
गणेश मंडप-विचार विमर्श-2
मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ कि गणेश जी के मंडपों पर 'कान-फोडू बाजे-गाजे' से अवश्य आस-पड़ोस के लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है. मैं भी इस प्रकार के आयोजन के विरुद्ध हूँ. लेकिन भक्ति -भजन हो, मधुर संगीत हो मैं उसकी प्रसंसा भी अवश्य करना चाहता हूँ. जिस तरह दशहरा, रमजान और होली के त्यौहार लोगों के मेल मिलाप बढ़ाते है मैं गणेश उत्सव को उसी की एक कड़ी के रूप में देखता हूँ.
Wednesday, 7 September 2011
गणेश मंडप-विचार विमर्श
गणेश मंडप-विचार विमर्श
Sunday, 4 September 2011
गणेश जी के आगमन पर दो भिन्न विचार.
Tuesday, 30 August 2011
बिल्ली का घर
Sunday, 28 August 2011
सरकारी दफ्तर पर व्यंग्य
Sunday, 21 August 2011
भाषा की गुलामी
हरगिज मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं मगर
सर झुका सकते नहीं|"
'लीडर' फ़िल्म का यह गीत सुना तो यह ख़याल मेरे दिल में आया कि क्या हम अपनी राष्ट्रीय भाषाओं, मातृभाषाओं के लिए यह गीत गा सकते हैं? क्या कभी गा सकेंगे या कभी गाने दिया जाएगा?
देश आजाद हुआ,अंग्रेजों की गुलामी से . मगर देश के लोग अंग्रेजी से आजाद नहीं हो पाए, नहीं होने दिया गया और नहीं होने दिया जा रहा है. अंग्रेजी की जरूरत इतनी बढ़ा दी गई है कि देश का हर बच्चा अपनी माँ की भाषा कम और अंग्रेजों की भाषा ज्यादा सीखने पर मजबूर होता जा रहा है. रोजी कमाने के लिए, जीने के लिए, अपने को बनाए रखने के लिए.
मेरे पास कोई आँकड़े तो नहीं हैं. ताकि उन्हें किसी के पूछे जाने पर प्रस्तुत कर सकूँ, सबूत के रूप में. लेकिन सच्चाई यही है मित्रो कि अंग्रेजी का एक बड़ा जाला फैल गया है पूरे देश पर जिससे आजाद हो पाना कठिन होता जा रहा है. चाहकर भी हम इसे नकार नहीं सकते. इस जाले को काट फेंकना शायद तभी संभव हो पाएगा जब हम अपने देश की भाषाओं, अपनी माँ की भाषाओं की जरूरत पैदा कर सके, लिखाई -पढ़ाई के माध्यम के रूप में पूरी तरह से अपना सके. मेरे ख़याल से जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक भले ही हमारी मातृभाषाएँ विज्ञापन की भाषा या धारावाहिकों-फिल्मों की भाषा के रूप में खूब नाम कामालें मगर उनका 'अंग्रेजी' के समक्ष दोयम दर्जा ही बनता जाएगा. आपकी क्या राय है......?
Friday, 19 August 2011
और भीतर
वह उससे बहुत छोटा है
कद उसका उससे छोटा है
पद उसका छोटा है
वह विशालकाय है.
एक शिला खंड निर्मित हो रहा है
उसके इर्द-गिर्द
तनाव का
कार्यकुशलता का
साबित करने का
उसे उसकी बेवजह हँसी
जमीन के भीतर
और भीतर,
और भीतर;
और भीतर
दफनाने की साजिश लगती है.
वह निश्चिंत है
धरती के गर्भ से निकलते अंकुर देख रहा है
वह.
('अन्ना हजारे' को समर्पित)
Tuesday, 16 August 2011
चक्रव्यूह के पास
Sunday, 24 July 2011
दोस्तों की मुलाकातें
Saturday, 23 July 2011
कूड़े दान के पास एक पुस्तक
Wednesday, 20 July 2011
ये टहनियाँ
Sunday, 12 June 2011
बाबा रामदेव को समर्पित
Monday, 6 June 2011
लोकतंत्र में तानाशाही

Sunday, 15 May 2011
चुप रहो!
सब कुछ रहा था
बोलना चाहते हुए भी
चुप.....?
मित्र ने कहा-
अरे! तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?
केवल मुस्कुराया
मुस्कान देखकर
वह भी चुप हो गयी।
बहस करने वाले
लोग
चुप हो गए।
मैंने
उठते हुए
अपने -आप से कहना चाहा
लोग बहुत बोलते हैं
काश..!
कभी -कभी
कुछ... करें
चुप रहें.
Friday, 13 May 2011
सिक्का उछालके
Wednesday, 11 May 2011
स्रवंति, अज्ञेय और मेरी पहली पोस्ट
नमस्ते पाठको.
यह ब्लॉग बनाए मुझे पूरा एक ज़माना हो गया है. लेकिन कोई भी पोस्ट लिखने की हिम्मत नहीं हुई. आदरणीय श्री चंद्रमौलेशवर प्रसाद जी की प्रेरणा से आज पहली पोस्ट लिखने का साहस कर रहा हूँ.
मेरी यह पोस्ट मेरे मन की बात भी है और इसे एक अन्य ब्लॉग पर मेरी प्रतिक्रिया भी माना जा सकता है.
कुछ दिन पहले हैदराबाद में अज्ञेय जी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई थी. आदरणीय गुरुवर प्रो.ऋषभ देव शर्मा जी ने मुझे उस संगोष्ठी के एक सत्र का संचालन करने का अवसर प्रदान किया. मैं उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ. स्रवंति के ब्लॉग पर उसी संगोष्ठी की रिकार्डिंग का लिंक देखा तो बड़ी प्रसन्नता हुई. मन में आया कि उसके संबंध में कुछ लिखूं. वही बात मैंने यहाँ पोस्ट के रूप में दे दी है.
आपकी सेवा में प्रेषित है-
दो-दो बार (१. राष्ट्रीय संगोष्ठी में विद्वानों के बीच बैठकर अज्ञेय को अलग-अलग ढंग से समझने का और २. स्रवंति के ब्लॉग पर संगोष्ठी की रिकार्डिंग सुनने का अवसर) 'अज्ञेय' को 'ज्ञेय' बनाने की कोशिश का हिस्सा बनने का अवसर देने के लिए धन्यवाद.
पढ़ने-पढ़ाने का कार्य करने वाले अर्थात विद्यार्थी, अध्यापक, शोधार्थी और हाँ ! स्वांत सुखाय व्यक्ति शायद संगोष्ठी और पोस्टर प्रदर्शनी में भाग लेकर मेरी तरह ही सोचतें होंगे. यदि नहीं तो उन्हें फिर से एक बार विचार करना ही चाहिए कि इतने विविध दृष्टियों से किसी एक रचनाकार को समझने का प्रयास किया गया, कोई तो महत्त्व की बात होगी. आपके द्वारा प्रेषित इस रिकार्डिंग से ऐसे विचारकों को पुनः विचार करने का अवश्य अवसर मिलेगा. ऐसी आशा है.
जिन्दगी में रिटेक का मौका नहीं मिलता लेकिन यह रिकार्डिंग उस दिन उपस्थित -अनुपस्थित सभी अज्ञेय प्रेमियों को बार-बार रिटेक करने का मौका जरूर देगी. मैं समझता हूँ कि साहित्य के चाहने वालों को अज्ञेय और उन्ही की तरह आधुनिक साहित्यकारों को देखने-समझने की एक नई दृष्टी अवश्य मिलेगी.
इस में कोई शक नहीं कि शोधार्थियों को तो अवश्य लाभ मिलेगा. मेरी राय में तो उन्हें एक बार फिर से तारो ताजा हो कर इस रिकार्डिंग को सुन लेना चाहिए ताकि उन्हें कम से कम निम्न बातें स्पष्ट रूप में समझ में आ जाए -
१. कैसा विषय चुने.
२. विषय अनुसार कैसी और कैसे सामग्री का संकलन करें.
३. अपने चुने हुए विषय को कैसे प्रस्तुत करें.
४. अपनी बात को उदाहरणों के द्वारा प्रामाणित करने का प्रयास कैसे करें इत्यादि.
कहना तो बहुत चाहता हूँ मगर समय का आभाव है इसलिए बस इतना ही बाकी आगे....
और हाँ! मुझे यहाँ प्रो.एम.वेंकटेश्वर जी की बात याद आ गई - उन्होंने संगोष्ठी के समापन सत्र में कहा था कि इस कार्यक्रम की रिकार्डिंग को पी. जी. विभाग के आर्काइव में सुरक्षित रखें ताकि अगले सत्रों के छात्रों को लाभ हो सके. मुझे लगा कि स्रवंति के ब्लॉग पर ये सारे लिंक देकर आपने पूरी संगोष्ठी को विद्यार्थियों के आलावा दूसरे जिज्ञासू पाठकों के लिए भी उपलब्ध कराकर बड़ा उपकार किया है.
मेरे ख़याल से आडियो केसेट से एमपी3 में बदलना और फिर छह-सात घंटे की सामग्री को ब्लॉग पर अपलोड करना आसान काम नहीं रहा होगा.जिन भी छात्रों, प्राध्यापकों या तकनीशीयनों ने इस बड़े काम को अंजाम दिया, मेरी ओर से उन तक नमस्कार पहुंचा दें.
वैसे मेरा भी बहुत मन करता है कि इस सब में अपने गुरुजन का हाथ बटाऊँ लेकिन नौकरी की भाग-दौड में नेट पर कभी-कभी ही आ पाता हूँ.
प्रयास करूंगा कि भविष्य में इस ब्लॉग को चालू रख सकूं...
"बैठो, रहो, पुकारो गाओ
मेरा ऐसा कर्म नहीं
मैं हारिल हूँ
बैठे रहना मेरे कुल का धर्म नहीं." - (अज्ञेय)