Tuesday 30 August 2011

बिल्ली का घर

बिल्ली को कोई हक्क नहीं
कि वह किसी के घर
अपने बच्चे जने
गंदा करे, अपवित्र करे.

शोर मचाए
दिन-रात
म्याऊँ-म्याऊ.

बिल्लों की गंध घर भर में भर जाए.

दूध के लिए
यहाँ-वहाँ ताक-झाँक करे.
चूहों को ढूँढे
अधमरे चूहों को न पकड़ पाए
मरे चूहों की गंध से घर
भर जाए बार-बार.

बिल्ली तो घर बदलती रहती है
सात घर बदलती है
अपने बच्चों को बचाने
उसे तो हक्का नहीं
किसी एक घर को अपना बनाने
क्योंकि
अंततः वह माँ है, माँ है.

Sunday 28 August 2011

सरकारी दफ्तर पर व्यंग्य

मेरे पापा के एक दोस्त हैं लल्लू लाल. हम बच्चे उन्हें प्यार से लालू अंकल कहते थे. एक दिन वे हमारे घर आए. उनके हाथ में एक मिठाई का डिब्बा था. पापा से मिलते ही लालू अंकल ने कहा लो भाई अपना मुँह मीठा करो. मेरे बेटे मुंगेरी लाल को सरकारी नौकरी लग गई. मेरे बरसों का सपना पूरा हो गया. उस दिन मैं अपने पापा को लालू अंकल से कहते सुना कि सरकारी नौकरी मिलना मतलब सरकार का दामाद बनना. उस समय मुझे वह कहावत समझ नहीं आई. तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था. इस कहावत का मतलव मुझे छठी कक्षा में समझ में आया.
हुआ यूं कि एक दिन अचानक हमारे घर मेरा मौसेरा भाई अमन आ गया. उसे अपने स्कालरशिप की अर्जी देने मुनसिपल आफ़िस जाना था. वह आफ़िस हमारे घर के बहुत करीब था. वह शहर में नया था. उसे उस आफिस का पता नहीं मालूम था. मैं अमन भैया को आफिस दिखाने के लिए उनके साथ चला गया.
आफिस को मैंने बाहर से कई बार देखा था मगर अन्दर कभी नहीं गया था. मैं पहली बार आफिस के अन्दर जा रहा था. आफिस बहुत पुराना लगा रहा था. उसकी दीवार पर न जाने कब कलरिंग हुई थी पता ही नहीं चल रहा था. भैया ने एक खिड़की के सामने खड़े हो कर कुछ पूछा. मैं तो इस हिस्टोरिकल मोनुमेंट को देखने में बीजी था. भैया ने मेरा हाथ पकड़कर कहा चल हमें अन्दर जाना है. अन्दर हमारे किसी दूर के रिश्तेदार के दामाद काम करते थे. मुझे तो पता ही नहीं था. उसने उन्हीं का नाम और काम की जगह पूछी थी खिड़की वाले आदमी से.
हम दोनों अन्दर गए. मैंने देखा एक चपरासी अपनी हथेलियों पर कुछ रख कर ताली बजा रहा था. मैंने अपने भैया से पूछा वह आदमी क्या कर रहा है. उसने बताया कि वह तम्बाकू खा रहा है और उसके बगल वाली दीवार उसी के थूंक से लाल हो गई है. वैसे उस सरकारी आफिस की दीवारें भले ही बाहर से बेरंगी दिखती हों मगर भीतर से बहुत रंगीन थीं. विशेषकर दीवारों के कोने. मैं हैरान था कि दीवारों के कोनों पर यह मार्डन आर्ट किसने उकेरा है. इस रहस्य का खुलासा भी मेरे भैया जी ने ही किया. सरकारी आफिसों में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारी अपनी कला का अपने थूंक से यूं प्रदर्शन करते हैं.
हमारे दूर के रिश्तेदार के दामाद तक पहुँचने से पहले मैं ने कई लोगों को देखा. वे लोग शायद रात में भी कहीं काम करके थक जाते है इसीलिए यहाँ आकर अपनी रात की नींद पूरी करते हैं. मैंने वहाँ एक अजीब सी बात देखी. मैंने देखा कि जहां आदमी किसी का इंतज़ार करते-करते सो रहे थे वहाँ पर के फंके बड़ी धीमी गति से चल रहे थे. और जहाँ की कुर्सी और मेज खाली थी वहां तेज गाती से.
कहीं-कहीं पर तेज गति वाले फंके के नीचे भी एकाद आदमी सोया दिखाई दे रहा था. उनके सामने कई सारी फाइलें रखी हुई थीं. मगर उनके सामने रखी गई लम्बी बेंच पर कोई नहीं बैठा था. मैं यह सब अजीबो गरीब नज़ारे देखता हुआ आगे बढ़ रहा था. तभी घड़ी ने अपना घंटा बजा दिया और बताया कि 11:00 बजे हैं.
अमन भैया हमारे रिश्तेदार की कुर्सी तक पहुँच गए थे. मगर निराश लग रहे थे. क्योकि अभी हमारे किसी दूर के रिश्तेदार के दामाद जी आफिस नहीं पधारे थे. वहाँ पर बैठे एक चपरासी से पता चला कि बस वे अब आते ही होंगे. उनके आने का समय बस अभी हो रहा है. जब आधे घंटे तक भी वे नहीं आये तब अमन भैया को गुस्सा आया और गुस्से में ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर कहा चलो घर चलते हैं, लगता है अभी सरकारी दामाद जी का आने का समय नहीं हुआ है. तब मुझे पता चला कि हमारे किसी दूर के रिस्तेदार के दामाद याने कि सरकारी दामाद. जब हम दोनों ऊबकर आफिस के बाहर चले जा रहे थे तभी एक चपरासी भागता हुआ आया और हमें आवाज देने लगा राजा बाबू आ गए हैं और हमें बुला रहें हैं. हम दोनों एक दूसरे का मुँह देखने लगे क्योंकि दरवाजा तो हमारे सामने है और दामाद बाबू कैसे भीतर पहुँच गए?

Sunday 21 August 2011

भाषा की गुलामी

"अपनी आजादी को हम
हरगिज मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं मगर
सर झुका सकते नहीं|"

'लीडर' फ़िल्म का यह गीत सुना तो यह ख़याल मेरे दिल में आया कि क्या हम अपनी राष्ट्रीय भाषाओं, मातृभाषाओं के लिए यह गीत गा सकते हैं? क्या कभी गा सकेंगे या कभी गाने दिया जाएगा?

देश आजाद हुआ,अंग्रेजों की गुलामी से . मगर देश के लोग अंग्रेजी से आजाद नहीं हो पाए, नहीं होने दिया गया और नहीं होने दिया जा रहा है. अंग्रेजी की जरूरत इतनी बढ़ा दी गई है कि देश का हर बच्चा अपनी माँ की भाषा कम और अंग्रेजों की भाषा ज्यादा सीखने पर मजबूर होता जा रहा है. रोजी कमाने के लिए, जीने के लिए, अपने को बनाए रखने के लिए.

मेरे पास कोई आँकड़े तो नहीं हैं. ताकि उन्हें किसी के पूछे जाने पर प्रस्तुत कर सकूँ, सबूत के रूप में. लेकिन सच्चाई यही है मित्रो कि अंग्रेजी का एक बड़ा जाला फैल गया है पूरे देश पर जिससे आजाद हो पाना कठिन होता जा रहा है. चाहकर भी हम इसे नकार नहीं सकते. इस जाले को काट फेंकना शायद तभी संभव हो पाएगा जब हम अपने देश की भाषाओं, अपनी माँ की भाषाओं की जरूरत पैदा कर सके, लिखाई -पढ़ाई के माध्यम के रूप में पूरी तरह से अपना सके. मेरे ख़याल से जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक भले ही हमारी मातृभाषाएँ विज्ञापन की भाषा या धारावाहिकों-फिल्मों की भाषा के रूप में खूब नाम कामालें मगर उनका 'अंग्रेजी' के समक्ष दोयम दर्जा ही बनता जाएगा. आपकी क्या राय है......?

Friday 19 August 2011

और भीतर

वह उससे कभी बहस में नहीं जीत पाएगा
वह उससे बहुत छोटा है
कद उसका उससे छोटा है
पद उसका छोटा है
वह विशालकाय है.

एक शिला खंड निर्मित हो रहा है
उसके इर्द-गिर्द
तनाव का
कार्यकुशलता का
साबित करने का
उसे उसकी बेवजह हँसी
जमीन के भीतर
और भीतर,
और भीतर;

और भीतर
दफनाने की साजिश लगती है.

वह निश्चिंत है
धरती के गर्भ से निकलते अंकुर देख रहा है
वह.
('अन्ना हजारे' को समर्पित)

Tuesday 16 August 2011

चक्रव्यूह के पास

चक्रव्यूह के पास
अभिमन्यु कभी भटकता नहीं
उसे मालूम है
किस द्वार से भीतर प्रवेश करना है.

मैं क्या करूँ?
चक्रव्यूह की परिभाषा भी नहीं जानता.
संरचना कैसे जान पाऊँगा?
द्वार प्रवेश के कैसे तोड़ पाऊँगा?
शत्रु हथियार से लैस, वार करते हैं
अचूक शब्द बाण-भाले, घायल करते हैं
मैं शर्म से पानी-पानी हो जाता हूँ.

अर्जुन का वंशज
अपने शस्त्र कभी नहीं डालता
प्राण भले ही छोड़ दे
रणभूमी कभी नहीं छोड़ता.

विचार कौंधता है
मन-मस्तिष्क में
संचरित होता है
साहस-दृढ़ विश्वास
धमनियों में
प्रवेश का निर्णय ले
तोड़ हर अवरोध
उन्नति-द्वार के.