ऐनक
एक मैंने
अपने बच्चे को खरीद कर दी
उसकी जिद्द थी
दुनिया को रंगीन
देखने की.
दुकान पर की रंगीन ऐनकें
बारी-बारी से चढ़ा
अपनी आखों पर
कभी हँसता
कभी ताली बजाता.
सफ़ेद शीशे वाली ऐनक
पहनकर उसने पाया
'दुनिया रंगीन अच्छी नहीं लगती
साफ़-सफ़ेद अच्छी लगती है
बिना ऐनक के सुन्दर दिखती है'.
Friday, 30 September 2011
Friday, 9 September 2011
गणेश मंडप-विचार विमर्श-2
नमस्कार सर.
मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ कि गणेश जी के मंडपों पर 'कान-फोडू बाजे-गाजे' से अवश्य आस-पड़ोस के लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है. मैं भी इस प्रकार के आयोजन के विरुद्ध हूँ. लेकिन भक्ति -भजन हो, मधुर संगीत हो मैं उसकी प्रसंसा भी अवश्य करना चाहता हूँ. जिस तरह दशहरा, रमजान और होली के त्यौहार लोगों के मेल मिलाप बढ़ाते है मैं गणेश उत्सव को उसी की एक कड़ी के रूप में देखता हूँ.
मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ कि गणेश जी के मंडपों पर 'कान-फोडू बाजे-गाजे' से अवश्य आस-पड़ोस के लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है. मैं भी इस प्रकार के आयोजन के विरुद्ध हूँ. लेकिन भक्ति -भजन हो, मधुर संगीत हो मैं उसकी प्रसंसा भी अवश्य करना चाहता हूँ. जिस तरह दशहरा, रमजान और होली के त्यौहार लोगों के मेल मिलाप बढ़ाते है मैं गणेश उत्सव को उसी की एक कड़ी के रूप में देखता हूँ.
हाँ, यह भी सही है कि इस कार्य के लिए काफी बड़ी मात्रा में धन व्यय होता है. इस बात का समाधान यह हो सकता है कि गली-गली में गणेश स्थापना न करके सामूहिक रूप में कुछ स्थानों को तय करलिया जाए और सर्वसमति से, भक्तिभाव से, श्रद्धा पूर्वक गणेश जी की आराधना करें.
जिस समय बाल गंगाधर तिलक ने गणेश जी की स्थापना को सार्वजनिक रूप में मनाने का विचार बनाया होगा उनके सामने लक्ष्य आजादी थी. आज उस आजादी को बनाए रखने के माध्य के रूप में इस उत्सव को मनाया जाना चाहिए.
धन्यवाद.
Wednesday, 7 September 2011
गणेश मंडप-विचार विमर्श
@ आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी.
प्रणाम सर.
आपका प्रश्न मुझे अच्छा लगा. आप हमेशा ही विचार-विमर्श के लिए एक मंच तैयार करते हैं, द्वार खोलते रहते हैं. जिससे विचारक को एक-एक द्वार पार करके सोपान तक पहुँचना होता है. इस यात्रा में मजेदार बात यह होती है कि आप यात्री के साथ हमेशा खड़े रहते हैं. उसे बीच में कभी नहीं छोड़ते.
इन अवसरों का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है यदि इनके साथ या इन कार्यकर्मों में या ऐसे कार्यक्रम रचनाशील व्यक्तियों द्वारा किए जाएँ.
मैं ने दोनों प्रकार के मंडप देखें हैं. एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है.
१. हमारे भाई साहब के अपार्टमेन्ट में गणेश जी की स्थापना हुई और पांचवें दिन विसर्जन किया गया. अपार्टमेन्ट के सभी परिवारों ने मिलकर पाँच दिनों तक गणेश जी का पूजन किया. इस अवसर पर उनका मेल-मिलाप बढ़ा. सामान्यतः जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं वे भी गणेश पूजन में शामिल हुआ करते थे. गणेश जी के पूजन और विसर्जन कार्यक्रम में सभी रिलिजन के लोग शामिल हुए. इन पांच दिनों में वहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया था.
२. कुछ मंडप ऐसे भी होते हैं जो असामाजिक तथा राजनैतिक पृष्ठ भूमि वाले लोगों द्वारा लगाए जाते हैं. यहाँ गणेश पूजन की आड़ में अन्य 'धंधे' किए जाते हैं. इन लोगों को अधिक महत्त्व न देकर इनकी ताकत को कम किया जा सकता है. बशर्ते कि आम आदमी बाह्य आडम्बरों के खोखलेपन को समझे.
धन्यवाद.
गणेश मंडप-विचार विमर्श
@ आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी.
प्रणाम सर.
आपका प्रश्न मुझे अच्छा लगा. आप हमेशा ही विचार-विमर्श के लिए एक मंच तैयार करते हैं, द्वार खोलते रहते हैं. जिससे विचारक को एक-एक द्वार पार करके सोपान तक पहुँचना होता है. इस यात्रा में मजेदार बात यह होती है कि आप यात्री के साथ हमेशा खड़े रहते हैं. उसे बीच में कभी नहीं छोड़ते.
इन अवसरों का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है यदि इनके साथ या इन कार्यकर्मों में या ऐसे कार्यक्रम रचनाशील व्यक्तियों द्वारा किए जाएँ.
मैं ने दोनों प्रकार के मंडप देखें हैं. एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है.
१. हमारे भाई साहब के अपार्टमेन्ट में गणेश जी की स्थापना हुई और पांचवें दिन विसर्जन किया गया. अपार्टमेन्ट के सभी परिवारों ने मिलकर पाँच दिनों तक गणेश जी का पूजन किया. इस अवसर पर उनका मेल-मिलाप बढ़ा. सामान्यतः जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं वे भी गणेश पूजन में शामिल हुआ करते थे. गणेश जी के पूजन और विसर्जन कार्यक्रम में सभी रिलिजन के लोग शामिल हुए. इन पांच दिनों में वहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया था.
२. कुछ मंडप ऐसे भी होते हैं जो असामाजिक तथा राजनैतिक पृष्ठ भूमि वाले लोगों द्वारा लगाए जाते हैं. यहाँ गणेश पूजन की आड़ में अन्य 'धंधे' किए जाते हैं. इन लोगों को अधिक महत्त्व न देकर इनकी ताकत को कम किया जा सकता है. बशर्ते कि आम आदमी बाह्य आडम्बरों के खोखलेपन को समझे.
धन्यवाद.
Sunday, 4 September 2011
गणेश जी के आगमन पर दो भिन्न विचार.
'जय बोलो गणपति बप्पा की'
गणेश जी के आगमन पर दो भिन्न विचार.
1. गणेश जी के आए आज चार दिन हो गए. बेटे की जिद्द पर 'कुछ' मोहल्लों के गणेश जी को देखने जाना हुआ. सभी गली मोहल्लों के गणेश जी हमारे घर में विराजे गणेश जी के जैसे ही लगे. हाँ, मूर्तियों के आकार-प्रकार में अवश्य भिन्नता थी और विभिन्न मंडपों की सजावट भी अलग-अलग थी. लगता है लोगों का विश्वास भक्ति में कम बाह्य आडम्बरों में अधिक है. तभी तो एक होड़ लगी लगती है कि किस का 'गणपति' अधिक सुन्दर और बड़ा है.
2 . लेकिन सजावट देखकर एक बार मन अवश्य प्रसन्न हो जाता है. गणेश जी के अलग-अलग रूप देखकर ऐसा लगता है कि गणेश जी 'भिन्नता में एकता' अर्थात भारतीयता की पहचान कराते नजर आते हैं. हर्ष-उल्लास से भरे ये दस दिन गली-गली में हल-चल बढ़ा देते हैं.
Tuesday, 30 August 2011
बिल्ली का घर
बिल्ली को कोई हक्क नहीं
कि वह किसी के घर
अपने बच्चे जने
गंदा करे, अपवित्र करे.
शोर मचाए
दिन-रात
म्याऊँ-म्याऊ.
बिल्लों की गंध घर भर में भर जाए.
दूध के लिए
यहाँ-वहाँ ताक-झाँक करे.
चूहों को ढूँढे
अधमरे चूहों को न पकड़ पाए
मरे चूहों की गंध से घर
भर जाए बार-बार.
बिल्ली तो घर बदलती रहती है
सात घर बदलती है
अपने बच्चों को बचाने
उसे तो हक्का नहीं
किसी एक घर को अपना बनाने
क्योंकि
अंततः वह माँ है, माँ है.
Sunday, 28 August 2011
सरकारी दफ्तर पर व्यंग्य
मेरे पापा के एक दोस्त हैं लल्लू लाल. हम बच्चे उन्हें प्यार से लालू अंकल कहते थे. एक दिन वे हमारे घर आए. उनके हाथ में एक मिठाई का डिब्बा था. पापा से मिलते ही लालू अंकल ने कहा लो भाई अपना मुँह मीठा करो. मेरे बेटे मुंगेरी लाल को सरकारी नौकरी लग गई. मेरे बरसों का सपना पूरा हो गया. उस दिन मैं अपने पापा को लालू अंकल से कहते सुना कि सरकारी नौकरी मिलना मतलब सरकार का दामाद बनना. उस समय मुझे वह कहावत समझ नहीं आई. तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था. इस कहावत का मतलव मुझे छठी कक्षा में समझ में आया.
हुआ यूं कि एक दिन अचानक हमारे घर मेरा मौसेरा भाई अमन आ गया. उसे अपने स्कालरशिप की अर्जी देने मुनसिपल आफ़िस जाना था. वह आफ़िस हमारे घर के बहुत करीब था. वह शहर में नया था. उसे उस आफिस का पता नहीं मालूम था. मैं अमन भैया को आफिस दिखाने के लिए उनके साथ चला गया.
आफिस को मैंने बाहर से कई बार देखा था मगर अन्दर कभी नहीं गया था. मैं पहली बार आफिस के अन्दर जा रहा था. आफिस बहुत पुराना लगा रहा था. उसकी दीवार पर न जाने कब कलरिंग हुई थी पता ही नहीं चल रहा था. भैया ने एक खिड़की के सामने खड़े हो कर कुछ पूछा. मैं तो इस हिस्टोरिकल मोनुमेंट को देखने में बीजी था. भैया ने मेरा हाथ पकड़कर कहा चल हमें अन्दर जाना है. अन्दर हमारे किसी दूर के रिश्तेदार के दामाद काम करते थे. मुझे तो पता ही नहीं था. उसने उन्हीं का नाम और काम की जगह पूछी थी खिड़की वाले आदमी से.
हम दोनों अन्दर गए. मैंने देखा एक चपरासी अपनी हथेलियों पर कुछ रख कर ताली बजा रहा था. मैंने अपने भैया से पूछा वह आदमी क्या कर रहा है. उसने बताया कि वह तम्बाकू खा रहा है और उसके बगल वाली दीवार उसी के थूंक से लाल हो गई है. वैसे उस सरकारी आफिस की दीवारें भले ही बाहर से बेरंगी दिखती हों मगर भीतर से बहुत रंगीन थीं. विशेषकर दीवारों के कोने. मैं हैरान था कि दीवारों के कोनों पर यह मार्डन आर्ट किसने उकेरा है. इस रहस्य का खुलासा भी मेरे भैया जी ने ही किया. सरकारी आफिसों में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारी अपनी कला का अपने थूंक से यूं प्रदर्शन करते हैं.
हमारे दूर के रिश्तेदार के दामाद तक पहुँचने से पहले मैं ने कई लोगों को देखा. वे लोग शायद रात में भी कहीं काम करके थक जाते है इसीलिए यहाँ आकर अपनी रात की नींद पूरी करते हैं. मैंने वहाँ एक अजीब सी बात देखी. मैंने देखा कि जहां आदमी किसी का इंतज़ार करते-करते सो रहे थे वहाँ पर के फंके बड़ी धीमी गति से चल रहे थे. और जहाँ की कुर्सी और मेज खाली थी वहां तेज गाती से.
कहीं-कहीं पर तेज गति वाले फंके के नीचे भी एकाद आदमी सोया दिखाई दे रहा था. उनके सामने कई सारी फाइलें रखी हुई थीं. मगर उनके सामने रखी गई लम्बी बेंच पर कोई नहीं बैठा था. मैं यह सब अजीबो गरीब नज़ारे देखता हुआ आगे बढ़ रहा था. तभी घड़ी ने अपना घंटा बजा दिया और बताया कि 11:00 बजे हैं.
अमन भैया हमारे रिश्तेदार की कुर्सी तक पहुँच गए थे. मगर निराश लग रहे थे. क्योकि अभी हमारे किसी दूर के रिश्तेदार के दामाद जी आफिस नहीं पधारे थे. वहाँ पर बैठे एक चपरासी से पता चला कि बस वे अब आते ही होंगे. उनके आने का समय बस अभी हो रहा है. जब आधे घंटे तक भी वे नहीं आये तब अमन भैया को गुस्सा आया और गुस्से में ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर कहा चलो घर चलते हैं, लगता है अभी सरकारी दामाद जी का आने का समय नहीं हुआ है. तब मुझे पता चला कि हमारे किसी दूर के रिस्तेदार के दामाद याने कि सरकारी दामाद. जब हम दोनों ऊबकर आफिस के बाहर चले जा रहे थे तभी एक चपरासी भागता हुआ आया और हमें आवाज देने लगा राजा बाबू आ गए हैं और हमें बुला रहें हैं. हम दोनों एक दूसरे का मुँह देखने लगे क्योंकि दरवाजा तो हमारे सामने है और दामाद बाबू कैसे भीतर पहुँच गए?
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