Sunday, 20 November 2011

भीड़ में अकेला

भीड़ में अकेला

लगता उसे
भीड़ उस ही के साथ हैं
चलने लगता वह
उसके साथ जो
उसकी बगल से निकल जाता
कभी बाएँ
कभी दाएं
कभी सीधे
कभी पीछे
लौट आता
करजर घूमाता
सोचता
मौस घूमाता
सोचता
मेरे साथ कौन है?
मैं किस-के साथ हूँ?
यहाँ किस ने लाया मुझे ?
मैं अब कहाँ हूँ?
ज्यों वह अब तक वह कोमा में था
होश में आने का प्रयास करते - करते
किसी अनजान साईट पर चला जाता है
ज्यों किसी भवंडर में फंसा हो
बाहर छह कर
भी नहीं निकल पाता है.

Sunday, 2 October 2011

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सरकारी उपेक्षा

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. यही अकेली ऐसी हिन्दी संस्था है जिसे विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है (राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था). लेकिन इस संस्था के कुल सचिव प्रो.दिलीप सिंह जी (जो मेरे श्रद्धेय गुरु हैं) के लेख में यह पढ़कर बहुत दुःख हुआ, शरम भी आई कि राष्ट्रीय महत्त्व की इस संस्था के प्रति सरकार और जनता दोनों का रुख अत्यंत उपेक्षापूर्ण है.क्या हम इन्टरनेट पर इस संबंध में कोई हस्ताक्षर अभियान नहीं चला सकते? हिंदी भारत के माध्यम से देश के कर्णधारों के कानों तक यह माँग पहुँचाने का कोई तो रास्ता होगा कि सरकार इस तरह हिंदी संस्थाओं और हिंदी को अब और अपमानित न करें.

साहित्य : दुनियादारी

सन्दर्भ- हिन्दी भारत पर
'हिंदी साहित्य की अजीबोगरीब दुनिया में यदि आपकी चंद सत्ता केंद्रों से नजदीकी नहीं तो आप लेखक नहीं. दिनेश कुमार की रिपोर्ट'
पर एक विचार


रिपोर्ट अच्छी है या बुरी है कहना मुश्किल है. भले ही इस रिपोर्ट से अनजानों को भी अच्छी जानकारी मिलती है. लेकिन जिन महानुभावों को साहित्य का एक विद्यार्थी बड़े आदर भाव से देखता है, उनके संबंध में इस प्रकार की बातें पढ़कर शायद अचरज में पड़ सकता है, मेरी तरह.
मुझे लगता है कि ये भी हमारी राजनेताओं की तरह बन गए हैं. अपनी आयु के अंतिम पड़ाव पर हैं मगर कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते. अपने होने को दर्ज करने के लिए शक्ति प्रदर्शन से अच्छा तरीका और क्या हो सकता है. ये भी अपनी शक्ति दिखाते रहते हैं. अपने अनुगामियों (फालोअर्स) को लाभ पहुँचाकर.
इस तरह की बातें तो हर क्षेत्र में है. मजुरगिरी, भाईगिरी, नेतागिरी और न जाने किन-किन गिरियों में भाई-भतिजागिरी है. और, अगर लेखकगिरी और साहित्यगिरी में भी इस के पैर फैलने लगे हैं तो 'अनेकता में एकता' में विशवास करने वालों को याने कि हमें शायद अरे नहीं जरुर खुश होना चाहिए कि अब लेखक और साहित्यकार भी भाईगिरी और नेतागिरी जो आज देश की पहचान बनी हुई है, उस में शामिल हो रहे हैं.
हमें इन महानुभावों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि कैसे साहित्य को समाज से जोड़ा जा सकता है. कहते है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज साहित्य का दर्पण. इस कथन को कैसे झुठलाया जा सकता है. लगता है इन साहित्यकारों ने इस कथन को सही साबित करने की ठानी थी. इसीलिए इन्होने वही किया जो समाज में दिखाई दे रहा था. दुनियादारी की बात है भय्या सीखते-सीखते आ जाएगी.

Friday, 30 September 2011

ऐनक

ऐनक
एक मैंने
अपने बच्चे को खरीद कर दी
उसकी जिद्द थी
दुनिया को रंगीन
देखने की.

दुकान पर की रंगीन ऐनकें
बारी-बारी से चढ़ा
अपनी आखों पर
कभी हँसता
कभी ताली बजाता.

सफ़ेद शीशे वाली ऐनक
पहनकर उसने पाया
'दुनिया रंगीन अच्छी नहीं लगती
साफ़-सफ़ेद अच्छी लगती है
बिना ऐनक के सुन्दर दिखती है'.

Friday, 9 September 2011

गणेश मंडप-विचार विमर्श-2


@ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी.
नमस्कार सर.

मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ कि गणेश जी के मंडपों पर 'कान-फोडू बाजे-गाजे' से अवश्य आस-पड़ोस के लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है. मैं भी इस प्रकार के आयोजन के विरुद्ध हूँ. लेकिन भक्ति -भजन हो, मधुर संगीत हो मैं उसकी प्रसंसा भी अवश्य करना चाहता हूँ. जिस तरह दशहरा, रमजान और होली के त्यौहार लोगों के मेल मिलाप बढ़ाते है मैं गणेश उत्सव को उसी की एक कड़ी के रूप में देखता हूँ.

हाँ, यह भी सही है कि इस कार्य के लिए काफी बड़ी मात्रा में धन व्यय होता है. इस बात का समाधान यह हो सकता है कि गली-गली में गणेश स्थापना न करके सामूहिक रूप में कुछ स्थानों को तय करलिया जाए और सर्वसमति से, भक्तिभाव से, श्रद्धा पूर्वक गणेश जी की आराधना करें.

जिस समय बाल गंगाधर तिलक ने गणेश जी की स्थापना को सार्वजनिक रूप में मनाने का विचार बनाया होगा उनके सामने लक्ष्य आजादी थी. आज उस आजादी को बनाए रखने के माध्य के रूप में इस उत्सव को मनाया जाना चाहिए.

धन्यवाद.

Wednesday, 7 September 2011

गणेश मंडप-विचार विमर्श

@ आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी.
प्रणाम सर.
आपका प्रश्न मुझे अच्छा लगा. आप हमेशा ही विचार-विमर्श के लिए एक मंच तैयार करते हैं, द्वार खोलते रहते हैं. जिससे विचारक को एक-एक द्वार पार करके सोपान तक पहुँचना होता है. इस यात्रा में मजेदार बात यह होती है कि आप यात्री के साथ हमेशा खड़े रहते हैं. उसे बीच में कभी नहीं छोड़ते.

इन अवसरों का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है यदि इनके साथ या इन कार्यकर्मों में या ऐसे कार्यक्रम रचनाशील व्यक्तियों द्वारा किए जाएँ.

मैं ने दोनों प्रकार के मंडप देखें हैं. एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है.

१. हमारे भाई साहब के अपार्टमेन्ट में गणेश जी की स्थापना हुई और पांचवें दिन विसर्जन किया गया. अपार्टमेन्ट के सभी परिवारों ने मिलकर पाँच दिनों तक गणेश जी का पूजन किया. इस अवसर पर उनका मेल-मिलाप बढ़ा. सामान्यतः जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं वे भी गणेश पूजन में शामिल हुआ करते थे. गणेश जी के पूजन और विसर्जन कार्यक्रम में सभी रिलिजन के लोग शामिल हुए. इन पांच दिनों में वहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया था.

२. कुछ मंडप ऐसे भी होते हैं जो असामाजिक तथा राजनैतिक पृष्ठ भूमि वाले लोगों द्वारा लगाए जाते हैं. यहाँ गणेश पूजन की आड़ में अन्य 'धंधे' किए जाते हैं. इन लोगों को अधिक महत्त्व न देकर इनकी ताकत को कम किया जा सकता है. बशर्ते कि आम आदमी बाह्य आडम्बरों के खोखलेपन को समझे.

धन्यवाद.

गणेश मंडप-विचार विमर्श

@ आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी.
प्रणाम सर.
आपका प्रश्न मुझे अच्छा लगा. आप हमेशा ही विचार-विमर्श के लिए एक मंच तैयार करते हैं, द्वार खोलते रहते हैं. जिससे विचारक को एक-एक द्वार पार करके सोपान तक पहुँचना होता है. इस यात्रा में मजेदार बात यह होती है कि आप यात्री के साथ हमेशा खड़े रहते हैं. उसे बीच में कभी नहीं छोड़ते.
इन अवसरों का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है यदि इनके साथ या इन कार्यकर्मों में या ऐसे कार्यक्रम रचनाशील व्यक्तियों द्वारा किए जाएँ.

मैं ने दोनों प्रकार के मंडप देखें हैं. एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है.

१. हमारे भाई साहब के अपार्टमेन्ट में गणेश जी की स्थापना हुई और पांचवें दिन विसर्जन किया गया. अपार्टमेन्ट के सभी परिवारों ने मिलकर पाँच दिनों तक गणेश जी का पूजन किया. इस अवसर पर उनका मेल-मिलाप बढ़ा. सामान्यतः जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं वे भी गणेश पूजन में शामिल हुआ करते थे. गणेश जी के पूजन और विसर्जन कार्यक्रम में सभी रिलिजन के लोग शामिल हुए. इन पांच दिनों में वहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया था.

२. कुछ मंडप ऐसे भी होते हैं जो असामाजिक तथा राजनैतिक पृष्ठ भूमि वाले लोगों द्वारा लगाए जाते हैं. यहाँ गणेश पूजन की आड़ में अन्य 'धंधे' किए जाते हैं. इन लोगों को अधिक महत्त्व न देकर इनकी ताकत को कम किया जा सकता है. बशर्ते कि आम आदमी बाह्य आडम्बरों के खोखलेपन को समझे.

धन्यवाद.