Monday 6 June 2011

लोकतंत्र में तानाशाही


भारत में लोकतंत्र जीवित है? दम तोड़ने के कगार पर है? समझ में नहीं आता. परसों दिल्ली में जो कुछ हुआ है, उसे देख-जानकर मन कुछ उदास हो गया था. दो दिनों से यही हाल है.हिंदी भारत पर आज आदरणीय चंद्रमौलेश्वर जी का मेल देखा. उन्होंने प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के ब्लॉग नया ज़माना पर लिखे लेख की ओर ध्यान आकर्षित किया है. पढ़ा तो खोपड़ी घूम गयी. लेकिन मैं उन की तरह न तो कुतर्की हो सकता हूँ और नहीं बतमीज. इसलिए संभल-संभलकर अपनी राय लिख रहा हूँ.
भगवान भला करे प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी का. संचार माध्यम का अच्छा उपयोग किया है.

देश में अभी अभिव्यक्ति की स्वंत्रता बची हुई है.इसीलिए ये कुछ भी अनाप शनाप लिख रहे हैं. उनके लेखन से तो ऐसा ही लगता है कि वे सरकार की चापलूसी कर रहे हैं. जिस तरह से उन्होंने सरकार और पुलिस की काली करतूतों की वकालत की है, उससे तो यही बात सामने आती है. यदि सरकार सही है और पुलिस अपने काम में इमानदार तो लोगों को भगाने की आवश्यकता ही नहीं थी. जो भीड़ पुलिस को डरकर भाग जाती है, उसे भला भगाने के लिए अन्य राज्यों से पुलिस बुलाने की क्या आवश्यकता पडी.दिल्ली और नायोड़ा में १४४ सेक्शन लगाने की क्या जरूरत महसूस की गयी. सरल, सीधे-सादे लोग थे इसलिए चुपचाप चले गए मगर ये सीधे-सादे, भोले-भाले लोग, भारतीय जन अधिक दिनों तक यह अत्याचार नहीं सहेंगे चाहे पुलिस का या सरकार का. अचानक हमला होने से जंगली शेर भी थोड़ी देर के लिले घबरा जाता है. यह तो हमारे देश की सामान्य जनता है. यही जनता कुछ दिनों पहले अन्ना हजारे के साथ खाड़ी थी. यह आगे भी खड़ी होगी, थोड़ा समय तो दीजिए उसे.

रामदेव बाबा कभी धर्म (रिलिजन) की बात नहीं करते, तो फिर वे और उनका आन्दोलन कैसे साम्प्रादायिक हो गया? इसे तो प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ही स्पष्ट कर सकते हैं.

3 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

भाई बालाजी, आपका ब्लाग पढ़कर यही कहा जा सकता है उसे गाने की तर्ज़ पर जिसमें कहा गया है कि
अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहां जाते...

अगर होते सभी तर्की, तो कुतर्की कहां जाते

ZEAL said...

सरकार का ये रवैय्या अत्यंक खेदजनक और असंवेदनशील है।

डॉ.बी.बालाजी said...

@ आदरणीय चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद.