साफ़-सफाई
विचारों का भूसाजरूरी है
घर-बाहर की
चिल्लाती हुई
दादी बाहर निकला आई.
दादा का मुँह
पीला हो गया
खुला रहा गया
देखकर
दादी के हाथ में
धूल भरे मकड़ी के जले
लिपटा लंबी डंडी वाला झाडू.
कई दिनों से
सफाई नहीं हुई
ऐसा नहीं है
रोज धूल जमती है
मकड़ी बच्चे जनती है.
कीड़े-मच्छर
बढ़ने लगे हैं
दीमकों की एक बड़ी फौज
बनती-बढ़ती जा रही है
काना-अंधा बना रहा है
सफाई की जरुरत है
मेरे मस्तिष्क की.
दादी से
वह लंबी डंडी वाला झाडू
मांगर लाना चाहता हूँ
और
दादा से वह पुस्तक
जिसे पढ़कर
उन्होंने घर बाहर की सफाई
की कला सीखी थी.
1 comment:
झाडना ही है तो एक और कविता झाड दीजिए बालाजी भाई। वैसे, विचार अच्छा है सफ़ाई का॥
Post a Comment