Monday, 16 January 2012

कुछ कहती क्यों नहीं?

कुछ कहती क्यों नहीं?
कहो, अकेलेपन को यूहीं
नहीं ढो,
तुम खड़ी जिस पार
धरती की मिट्टी
उपजाऊ है
रोपो
अपने विचार, भाव, संवेदनाएं
पीली-पीली
सरसों की तरह
कई कविताएँ
उग जाएँगी
गेंहूं की बालियों की तरह
अंकुरित हो फैल जाएँगी
मन के खेत पर
नहीं सहो,
कुदाल से उकेरो
अपनी बेबसी
रचो.


वे दोनों

वे दोनों
बातें
कहाँ करते हैं ?
चुप-चाप बैठे
आकाश की सफ़ेद पाटी
पर, काले-काले शब्दों को
आँखों से अंकित
कर, उकेरते हैं
अक्षरों की मालाएं
बुनते-बुनते
उठकर विपरीत दिशा
में, जाते
चले जाते हैं.


दीवार पर

दीवार पर
अपने कमरे की
आपने अपना नाम
कभी लिखा होगा
डांट सुनी होगी
'दीवार गंदी मत करो'

गली मोहल्ले की सड़क
छिलती है
छिली जाती है
बहुत बड़ी नुकीली पेंसिल से
कई नाम लिखे जाते हैं
मिटते नहीं
कभी मिटाए जाते नहीं
दबाए जाते हैं.

गिरी दीवारों की पुरानी
मिट्टी
मलबा
दबा देता है सारे नाम.

नल की
पाइप लाइनों से
गंदे पानी के पाइपों से
चिपके काक्रोच
नामों को खा-खाकर
अपनी आबादी बढाते है.

रात-अंधरे-शांत
ऊपरी दुनिया की सैर पर
अपनी दुनिया को लेकर
निकल पड़ते हैं.

एक
कमरे की दीवार पर चढ़ता
लिखकर कटा नाम देखता
अंतिम अक्षर में लगी मात्रा
पसंद कर चाटने लगता
अचानक उस पर बढ़ता
साया देखकर
यहाँ-वहाँ भागने की नाकाम कोशिश
'हिट-बेगान बेकार हो गए हैं
इनका इलाज यही है'

'तुम क्या देख रहे हो
चलो, सो जाओ'

सुबह जल्दी उठना है
वर्ना लेट मार्किंग होगी.'

विचलित मन की व्यथा सुनाने

विचलित मन की व्यथा सुनाने
फुर्सत की खोज करता हूँ.

भीड़ से होड़ करके
तुम्हारे पास आता हूँ.

मंदिर की घंटियाँ
बजतीं, चुप हो जातीं
मेरा मन बज उठाता
भीड़ में
एकांत में
सुनने नदी के तट पर जाता हूँ
बहती है
जंगल के बीच से
कभी शांत
कभी कलल-कलकल
कलल-कलकल
ध्वनि करती हुई वह.

Sunday, 20 November 2011

भीड़ में अकेला

भीड़ में अकेला

लगता उसे
भीड़ उस ही के साथ हैं
चलने लगता वह
उसके साथ जो
उसकी बगल से निकल जाता
कभी बाएँ
कभी दाएं
कभी सीधे
कभी पीछे
लौट आता
करजर घूमाता
सोचता
मौस घूमाता
सोचता
मेरे साथ कौन है?
मैं किस-के साथ हूँ?
यहाँ किस ने लाया मुझे ?
मैं अब कहाँ हूँ?
ज्यों वह अब तक वह कोमा में था
होश में आने का प्रयास करते - करते
किसी अनजान साईट पर चला जाता है
ज्यों किसी भवंडर में फंसा हो
बाहर छह कर
भी नहीं निकल पाता है.

Sunday, 2 October 2011

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सरकारी उपेक्षा

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. यही अकेली ऐसी हिन्दी संस्था है जिसे विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है (राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था). लेकिन इस संस्था के कुल सचिव प्रो.दिलीप सिंह जी (जो मेरे श्रद्धेय गुरु हैं) के लेख में यह पढ़कर बहुत दुःख हुआ, शरम भी आई कि राष्ट्रीय महत्त्व की इस संस्था के प्रति सरकार और जनता दोनों का रुख अत्यंत उपेक्षापूर्ण है.क्या हम इन्टरनेट पर इस संबंध में कोई हस्ताक्षर अभियान नहीं चला सकते? हिंदी भारत के माध्यम से देश के कर्णधारों के कानों तक यह माँग पहुँचाने का कोई तो रास्ता होगा कि सरकार इस तरह हिंदी संस्थाओं और हिंदी को अब और अपमानित न करें.

साहित्य : दुनियादारी

सन्दर्भ- हिन्दी भारत पर
'हिंदी साहित्य की अजीबोगरीब दुनिया में यदि आपकी चंद सत्ता केंद्रों से नजदीकी नहीं तो आप लेखक नहीं. दिनेश कुमार की रिपोर्ट'
पर एक विचार


रिपोर्ट अच्छी है या बुरी है कहना मुश्किल है. भले ही इस रिपोर्ट से अनजानों को भी अच्छी जानकारी मिलती है. लेकिन जिन महानुभावों को साहित्य का एक विद्यार्थी बड़े आदर भाव से देखता है, उनके संबंध में इस प्रकार की बातें पढ़कर शायद अचरज में पड़ सकता है, मेरी तरह.
मुझे लगता है कि ये भी हमारी राजनेताओं की तरह बन गए हैं. अपनी आयु के अंतिम पड़ाव पर हैं मगर कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते. अपने होने को दर्ज करने के लिए शक्ति प्रदर्शन से अच्छा तरीका और क्या हो सकता है. ये भी अपनी शक्ति दिखाते रहते हैं. अपने अनुगामियों (फालोअर्स) को लाभ पहुँचाकर.
इस तरह की बातें तो हर क्षेत्र में है. मजुरगिरी, भाईगिरी, नेतागिरी और न जाने किन-किन गिरियों में भाई-भतिजागिरी है. और, अगर लेखकगिरी और साहित्यगिरी में भी इस के पैर फैलने लगे हैं तो 'अनेकता में एकता' में विशवास करने वालों को याने कि हमें शायद अरे नहीं जरुर खुश होना चाहिए कि अब लेखक और साहित्यकार भी भाईगिरी और नेतागिरी जो आज देश की पहचान बनी हुई है, उस में शामिल हो रहे हैं.
हमें इन महानुभावों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि कैसे साहित्य को समाज से जोड़ा जा सकता है. कहते है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज साहित्य का दर्पण. इस कथन को कैसे झुठलाया जा सकता है. लगता है इन साहित्यकारों ने इस कथन को सही साबित करने की ठानी थी. इसीलिए इन्होने वही किया जो समाज में दिखाई दे रहा था. दुनियादारी की बात है भय्या सीखते-सीखते आ जाएगी.