Sunday 20 November 2011

भीड़ में अकेला

भीड़ में अकेला

लगता उसे
भीड़ उस ही के साथ हैं
चलने लगता वह
उसके साथ जो
उसकी बगल से निकल जाता
कभी बाएँ
कभी दाएं
कभी सीधे
कभी पीछे
लौट आता
करजर घूमाता
सोचता
मौस घूमाता
सोचता
मेरे साथ कौन है?
मैं किस-के साथ हूँ?
यहाँ किस ने लाया मुझे ?
मैं अब कहाँ हूँ?
ज्यों वह अब तक वह कोमा में था
होश में आने का प्रयास करते - करते
किसी अनजान साईट पर चला जाता है
ज्यों किसी भवंडर में फंसा हो
बाहर छह कर
भी नहीं निकल पाता है.

Sunday 2 October 2011

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सरकारी उपेक्षा

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. यही अकेली ऐसी हिन्दी संस्था है जिसे विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है (राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था). लेकिन इस संस्था के कुल सचिव प्रो.दिलीप सिंह जी (जो मेरे श्रद्धेय गुरु हैं) के लेख में यह पढ़कर बहुत दुःख हुआ, शरम भी आई कि राष्ट्रीय महत्त्व की इस संस्था के प्रति सरकार और जनता दोनों का रुख अत्यंत उपेक्षापूर्ण है.क्या हम इन्टरनेट पर इस संबंध में कोई हस्ताक्षर अभियान नहीं चला सकते? हिंदी भारत के माध्यम से देश के कर्णधारों के कानों तक यह माँग पहुँचाने का कोई तो रास्ता होगा कि सरकार इस तरह हिंदी संस्थाओं और हिंदी को अब और अपमानित न करें.

साहित्य : दुनियादारी

सन्दर्भ- हिन्दी भारत पर
'हिंदी साहित्य की अजीबोगरीब दुनिया में यदि आपकी चंद सत्ता केंद्रों से नजदीकी नहीं तो आप लेखक नहीं. दिनेश कुमार की रिपोर्ट'
पर एक विचार


रिपोर्ट अच्छी है या बुरी है कहना मुश्किल है. भले ही इस रिपोर्ट से अनजानों को भी अच्छी जानकारी मिलती है. लेकिन जिन महानुभावों को साहित्य का एक विद्यार्थी बड़े आदर भाव से देखता है, उनके संबंध में इस प्रकार की बातें पढ़कर शायद अचरज में पड़ सकता है, मेरी तरह.
मुझे लगता है कि ये भी हमारी राजनेताओं की तरह बन गए हैं. अपनी आयु के अंतिम पड़ाव पर हैं मगर कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते. अपने होने को दर्ज करने के लिए शक्ति प्रदर्शन से अच्छा तरीका और क्या हो सकता है. ये भी अपनी शक्ति दिखाते रहते हैं. अपने अनुगामियों (फालोअर्स) को लाभ पहुँचाकर.
इस तरह की बातें तो हर क्षेत्र में है. मजुरगिरी, भाईगिरी, नेतागिरी और न जाने किन-किन गिरियों में भाई-भतिजागिरी है. और, अगर लेखकगिरी और साहित्यगिरी में भी इस के पैर फैलने लगे हैं तो 'अनेकता में एकता' में विशवास करने वालों को याने कि हमें शायद अरे नहीं जरुर खुश होना चाहिए कि अब लेखक और साहित्यकार भी भाईगिरी और नेतागिरी जो आज देश की पहचान बनी हुई है, उस में शामिल हो रहे हैं.
हमें इन महानुभावों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि कैसे साहित्य को समाज से जोड़ा जा सकता है. कहते है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज साहित्य का दर्पण. इस कथन को कैसे झुठलाया जा सकता है. लगता है इन साहित्यकारों ने इस कथन को सही साबित करने की ठानी थी. इसीलिए इन्होने वही किया जो समाज में दिखाई दे रहा था. दुनियादारी की बात है भय्या सीखते-सीखते आ जाएगी.

Friday 30 September 2011

ऐनक

ऐनक
एक मैंने
अपने बच्चे को खरीद कर दी
उसकी जिद्द थी
दुनिया को रंगीन
देखने की.

दुकान पर की रंगीन ऐनकें
बारी-बारी से चढ़ा
अपनी आखों पर
कभी हँसता
कभी ताली बजाता.

सफ़ेद शीशे वाली ऐनक
पहनकर उसने पाया
'दुनिया रंगीन अच्छी नहीं लगती
साफ़-सफ़ेद अच्छी लगती है
बिना ऐनक के सुन्दर दिखती है'.

Friday 9 September 2011

गणेश मंडप-विचार विमर्श-2


@ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी.
नमस्कार सर.

मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ कि गणेश जी के मंडपों पर 'कान-फोडू बाजे-गाजे' से अवश्य आस-पड़ोस के लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है. मैं भी इस प्रकार के आयोजन के विरुद्ध हूँ. लेकिन भक्ति -भजन हो, मधुर संगीत हो मैं उसकी प्रसंसा भी अवश्य करना चाहता हूँ. जिस तरह दशहरा, रमजान और होली के त्यौहार लोगों के मेल मिलाप बढ़ाते है मैं गणेश उत्सव को उसी की एक कड़ी के रूप में देखता हूँ.

हाँ, यह भी सही है कि इस कार्य के लिए काफी बड़ी मात्रा में धन व्यय होता है. इस बात का समाधान यह हो सकता है कि गली-गली में गणेश स्थापना न करके सामूहिक रूप में कुछ स्थानों को तय करलिया जाए और सर्वसमति से, भक्तिभाव से, श्रद्धा पूर्वक गणेश जी की आराधना करें.

जिस समय बाल गंगाधर तिलक ने गणेश जी की स्थापना को सार्वजनिक रूप में मनाने का विचार बनाया होगा उनके सामने लक्ष्य आजादी थी. आज उस आजादी को बनाए रखने के माध्य के रूप में इस उत्सव को मनाया जाना चाहिए.

धन्यवाद.

Wednesday 7 September 2011

गणेश मंडप-विचार विमर्श

@ आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी.
प्रणाम सर.
आपका प्रश्न मुझे अच्छा लगा. आप हमेशा ही विचार-विमर्श के लिए एक मंच तैयार करते हैं, द्वार खोलते रहते हैं. जिससे विचारक को एक-एक द्वार पार करके सोपान तक पहुँचना होता है. इस यात्रा में मजेदार बात यह होती है कि आप यात्री के साथ हमेशा खड़े रहते हैं. उसे बीच में कभी नहीं छोड़ते.

इन अवसरों का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है यदि इनके साथ या इन कार्यकर्मों में या ऐसे कार्यक्रम रचनाशील व्यक्तियों द्वारा किए जाएँ.

मैं ने दोनों प्रकार के मंडप देखें हैं. एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है.

१. हमारे भाई साहब के अपार्टमेन्ट में गणेश जी की स्थापना हुई और पांचवें दिन विसर्जन किया गया. अपार्टमेन्ट के सभी परिवारों ने मिलकर पाँच दिनों तक गणेश जी का पूजन किया. इस अवसर पर उनका मेल-मिलाप बढ़ा. सामान्यतः जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं वे भी गणेश पूजन में शामिल हुआ करते थे. गणेश जी के पूजन और विसर्जन कार्यक्रम में सभी रिलिजन के लोग शामिल हुए. इन पांच दिनों में वहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया था.

२. कुछ मंडप ऐसे भी होते हैं जो असामाजिक तथा राजनैतिक पृष्ठ भूमि वाले लोगों द्वारा लगाए जाते हैं. यहाँ गणेश पूजन की आड़ में अन्य 'धंधे' किए जाते हैं. इन लोगों को अधिक महत्त्व न देकर इनकी ताकत को कम किया जा सकता है. बशर्ते कि आम आदमी बाह्य आडम्बरों के खोखलेपन को समझे.

धन्यवाद.

गणेश मंडप-विचार विमर्श

@ आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी.
प्रणाम सर.
आपका प्रश्न मुझे अच्छा लगा. आप हमेशा ही विचार-विमर्श के लिए एक मंच तैयार करते हैं, द्वार खोलते रहते हैं. जिससे विचारक को एक-एक द्वार पार करके सोपान तक पहुँचना होता है. इस यात्रा में मजेदार बात यह होती है कि आप यात्री के साथ हमेशा खड़े रहते हैं. उसे बीच में कभी नहीं छोड़ते.
इन अवसरों का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है यदि इनके साथ या इन कार्यकर्मों में या ऐसे कार्यक्रम रचनाशील व्यक्तियों द्वारा किए जाएँ.

मैं ने दोनों प्रकार के मंडप देखें हैं. एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है.

१. हमारे भाई साहब के अपार्टमेन्ट में गणेश जी की स्थापना हुई और पांचवें दिन विसर्जन किया गया. अपार्टमेन्ट के सभी परिवारों ने मिलकर पाँच दिनों तक गणेश जी का पूजन किया. इस अवसर पर उनका मेल-मिलाप बढ़ा. सामान्यतः जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं वे भी गणेश पूजन में शामिल हुआ करते थे. गणेश जी के पूजन और विसर्जन कार्यक्रम में सभी रिलिजन के लोग शामिल हुए. इन पांच दिनों में वहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया था.

२. कुछ मंडप ऐसे भी होते हैं जो असामाजिक तथा राजनैतिक पृष्ठ भूमि वाले लोगों द्वारा लगाए जाते हैं. यहाँ गणेश पूजन की आड़ में अन्य 'धंधे' किए जाते हैं. इन लोगों को अधिक महत्त्व न देकर इनकी ताकत को कम किया जा सकता है. बशर्ते कि आम आदमी बाह्य आडम्बरों के खोखलेपन को समझे.

धन्यवाद.

Sunday 4 September 2011

गणेश जी के आगमन पर दो भिन्न विचार.

'जय बोलो गणपति बप्पा की'

गणेश जी के आगमन पर दो भिन्न विचार.

1. गणेश जी के आए आज चार दिन हो गए. बेटे की जिद्द पर 'कुछ' मोहल्लों के गणेश जी को देखने जाना हुआ. सभी गली मोहल्लों के गणेश जी हमारे घर में विराजे गणेश जी के जैसे ही लगे. हाँ, मूर्तियों के आकार-प्रकार में अवश्य भिन्नता थी और विभिन्न मंडपों की सजावट भी अलग-अलग थी. लगता है लोगों का विश्वास भक्ति में कम बाह्य आडम्बरों में अधिक है. तभी तो एक होड़ लगी लगती है कि किस का 'गणपति' अधिक सुन्दर और बड़ा है.

2 . लेकिन सजावट देखकर एक बार मन अवश्य प्रसन्न हो जाता है. गणेश जी के अलग-अलग रूप देखकर ऐसा लगता है कि गणेश जी 'भिन्नता में एकता' अर्थात भारतीयता की पहचान कराते नजर आते हैं. हर्ष-उल्लास से भरे ये दस दिन गली-गली में हल-चल बढ़ा देते हैं.


Tuesday 30 August 2011

बिल्ली का घर

बिल्ली को कोई हक्क नहीं
कि वह किसी के घर
अपने बच्चे जने
गंदा करे, अपवित्र करे.

शोर मचाए
दिन-रात
म्याऊँ-म्याऊ.

बिल्लों की गंध घर भर में भर जाए.

दूध के लिए
यहाँ-वहाँ ताक-झाँक करे.
चूहों को ढूँढे
अधमरे चूहों को न पकड़ पाए
मरे चूहों की गंध से घर
भर जाए बार-बार.

बिल्ली तो घर बदलती रहती है
सात घर बदलती है
अपने बच्चों को बचाने
उसे तो हक्का नहीं
किसी एक घर को अपना बनाने
क्योंकि
अंततः वह माँ है, माँ है.

Sunday 28 August 2011

सरकारी दफ्तर पर व्यंग्य

मेरे पापा के एक दोस्त हैं लल्लू लाल. हम बच्चे उन्हें प्यार से लालू अंकल कहते थे. एक दिन वे हमारे घर आए. उनके हाथ में एक मिठाई का डिब्बा था. पापा से मिलते ही लालू अंकल ने कहा लो भाई अपना मुँह मीठा करो. मेरे बेटे मुंगेरी लाल को सरकारी नौकरी लग गई. मेरे बरसों का सपना पूरा हो गया. उस दिन मैं अपने पापा को लालू अंकल से कहते सुना कि सरकारी नौकरी मिलना मतलब सरकार का दामाद बनना. उस समय मुझे वह कहावत समझ नहीं आई. तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था. इस कहावत का मतलव मुझे छठी कक्षा में समझ में आया.
हुआ यूं कि एक दिन अचानक हमारे घर मेरा मौसेरा भाई अमन आ गया. उसे अपने स्कालरशिप की अर्जी देने मुनसिपल आफ़िस जाना था. वह आफ़िस हमारे घर के बहुत करीब था. वह शहर में नया था. उसे उस आफिस का पता नहीं मालूम था. मैं अमन भैया को आफिस दिखाने के लिए उनके साथ चला गया.
आफिस को मैंने बाहर से कई बार देखा था मगर अन्दर कभी नहीं गया था. मैं पहली बार आफिस के अन्दर जा रहा था. आफिस बहुत पुराना लगा रहा था. उसकी दीवार पर न जाने कब कलरिंग हुई थी पता ही नहीं चल रहा था. भैया ने एक खिड़की के सामने खड़े हो कर कुछ पूछा. मैं तो इस हिस्टोरिकल मोनुमेंट को देखने में बीजी था. भैया ने मेरा हाथ पकड़कर कहा चल हमें अन्दर जाना है. अन्दर हमारे किसी दूर के रिश्तेदार के दामाद काम करते थे. मुझे तो पता ही नहीं था. उसने उन्हीं का नाम और काम की जगह पूछी थी खिड़की वाले आदमी से.
हम दोनों अन्दर गए. मैंने देखा एक चपरासी अपनी हथेलियों पर कुछ रख कर ताली बजा रहा था. मैंने अपने भैया से पूछा वह आदमी क्या कर रहा है. उसने बताया कि वह तम्बाकू खा रहा है और उसके बगल वाली दीवार उसी के थूंक से लाल हो गई है. वैसे उस सरकारी आफिस की दीवारें भले ही बाहर से बेरंगी दिखती हों मगर भीतर से बहुत रंगीन थीं. विशेषकर दीवारों के कोने. मैं हैरान था कि दीवारों के कोनों पर यह मार्डन आर्ट किसने उकेरा है. इस रहस्य का खुलासा भी मेरे भैया जी ने ही किया. सरकारी आफिसों में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारी अपनी कला का अपने थूंक से यूं प्रदर्शन करते हैं.
हमारे दूर के रिश्तेदार के दामाद तक पहुँचने से पहले मैं ने कई लोगों को देखा. वे लोग शायद रात में भी कहीं काम करके थक जाते है इसीलिए यहाँ आकर अपनी रात की नींद पूरी करते हैं. मैंने वहाँ एक अजीब सी बात देखी. मैंने देखा कि जहां आदमी किसी का इंतज़ार करते-करते सो रहे थे वहाँ पर के फंके बड़ी धीमी गति से चल रहे थे. और जहाँ की कुर्सी और मेज खाली थी वहां तेज गाती से.
कहीं-कहीं पर तेज गति वाले फंके के नीचे भी एकाद आदमी सोया दिखाई दे रहा था. उनके सामने कई सारी फाइलें रखी हुई थीं. मगर उनके सामने रखी गई लम्बी बेंच पर कोई नहीं बैठा था. मैं यह सब अजीबो गरीब नज़ारे देखता हुआ आगे बढ़ रहा था. तभी घड़ी ने अपना घंटा बजा दिया और बताया कि 11:00 बजे हैं.
अमन भैया हमारे रिश्तेदार की कुर्सी तक पहुँच गए थे. मगर निराश लग रहे थे. क्योकि अभी हमारे किसी दूर के रिश्तेदार के दामाद जी आफिस नहीं पधारे थे. वहाँ पर बैठे एक चपरासी से पता चला कि बस वे अब आते ही होंगे. उनके आने का समय बस अभी हो रहा है. जब आधे घंटे तक भी वे नहीं आये तब अमन भैया को गुस्सा आया और गुस्से में ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर कहा चलो घर चलते हैं, लगता है अभी सरकारी दामाद जी का आने का समय नहीं हुआ है. तब मुझे पता चला कि हमारे किसी दूर के रिस्तेदार के दामाद याने कि सरकारी दामाद. जब हम दोनों ऊबकर आफिस के बाहर चले जा रहे थे तभी एक चपरासी भागता हुआ आया और हमें आवाज देने लगा राजा बाबू आ गए हैं और हमें बुला रहें हैं. हम दोनों एक दूसरे का मुँह देखने लगे क्योंकि दरवाजा तो हमारे सामने है और दामाद बाबू कैसे भीतर पहुँच गए?

Sunday 21 August 2011

भाषा की गुलामी

"अपनी आजादी को हम
हरगिज मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं मगर
सर झुका सकते नहीं|"

'लीडर' फ़िल्म का यह गीत सुना तो यह ख़याल मेरे दिल में आया कि क्या हम अपनी राष्ट्रीय भाषाओं, मातृभाषाओं के लिए यह गीत गा सकते हैं? क्या कभी गा सकेंगे या कभी गाने दिया जाएगा?

देश आजाद हुआ,अंग्रेजों की गुलामी से . मगर देश के लोग अंग्रेजी से आजाद नहीं हो पाए, नहीं होने दिया गया और नहीं होने दिया जा रहा है. अंग्रेजी की जरूरत इतनी बढ़ा दी गई है कि देश का हर बच्चा अपनी माँ की भाषा कम और अंग्रेजों की भाषा ज्यादा सीखने पर मजबूर होता जा रहा है. रोजी कमाने के लिए, जीने के लिए, अपने को बनाए रखने के लिए.

मेरे पास कोई आँकड़े तो नहीं हैं. ताकि उन्हें किसी के पूछे जाने पर प्रस्तुत कर सकूँ, सबूत के रूप में. लेकिन सच्चाई यही है मित्रो कि अंग्रेजी का एक बड़ा जाला फैल गया है पूरे देश पर जिससे आजाद हो पाना कठिन होता जा रहा है. चाहकर भी हम इसे नकार नहीं सकते. इस जाले को काट फेंकना शायद तभी संभव हो पाएगा जब हम अपने देश की भाषाओं, अपनी माँ की भाषाओं की जरूरत पैदा कर सके, लिखाई -पढ़ाई के माध्यम के रूप में पूरी तरह से अपना सके. मेरे ख़याल से जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक भले ही हमारी मातृभाषाएँ विज्ञापन की भाषा या धारावाहिकों-फिल्मों की भाषा के रूप में खूब नाम कामालें मगर उनका 'अंग्रेजी' के समक्ष दोयम दर्जा ही बनता जाएगा. आपकी क्या राय है......?

Friday 19 August 2011

और भीतर

वह उससे कभी बहस में नहीं जीत पाएगा
वह उससे बहुत छोटा है
कद उसका उससे छोटा है
पद उसका छोटा है
वह विशालकाय है.

एक शिला खंड निर्मित हो रहा है
उसके इर्द-गिर्द
तनाव का
कार्यकुशलता का
साबित करने का
उसे उसकी बेवजह हँसी
जमीन के भीतर
और भीतर,
और भीतर;

और भीतर
दफनाने की साजिश लगती है.

वह निश्चिंत है
धरती के गर्भ से निकलते अंकुर देख रहा है
वह.
('अन्ना हजारे' को समर्पित)

Tuesday 16 August 2011

चक्रव्यूह के पास

चक्रव्यूह के पास
अभिमन्यु कभी भटकता नहीं
उसे मालूम है
किस द्वार से भीतर प्रवेश करना है.

मैं क्या करूँ?
चक्रव्यूह की परिभाषा भी नहीं जानता.
संरचना कैसे जान पाऊँगा?
द्वार प्रवेश के कैसे तोड़ पाऊँगा?
शत्रु हथियार से लैस, वार करते हैं
अचूक शब्द बाण-भाले, घायल करते हैं
मैं शर्म से पानी-पानी हो जाता हूँ.

अर्जुन का वंशज
अपने शस्त्र कभी नहीं डालता
प्राण भले ही छोड़ दे
रणभूमी कभी नहीं छोड़ता.

विचार कौंधता है
मन-मस्तिष्क में
संचरित होता है
साहस-दृढ़ विश्वास
धमनियों में
प्रवेश का निर्णय ले
तोड़ हर अवरोध
उन्नति-द्वार के.











Sunday 24 July 2011

दोस्तों की मुलाकातें

दोस्तों की मुलाकातें
हर्ष-उल्लास से भरी होती हैं कितनी
कभी-कभी उदासी भी छा जाती है
देखकर किसी दोस्त को उदास.

छोटा पौधा बढ़ते-बढ़ते
छायादार वृक्ष बनता है
आकाश को छूती उसकी बाहें
कुछ कहती जान पड़ती हैं.

हरी पत्तियों से भरा
मुस्कुराता कभी
ठहाका लगाकर हँसता
झूलता हवा में लहराता कभी
दोस्त जैसे, मेरा हँसता है.

हर मौसम में सहारा देता
मुसीबतों के छन
डटकर खड़ा पाया इसे.

जाते समय हाथ मिलाता है
बिदाई देता, जाने तक देखता रहता
पीछे से बुलाता
कोई भूली बात याद कराता
बतियाने लगता
ऐसे ही बहुतबार हम हाथ मिलाते
एक दूसरे से बिदाई लेते.

पेड़ की छाया छोड़ना
और
छोड़कर चले जाने की इच्छा होती नहीं मेरी.

Saturday 23 July 2011

कूड़े दान के पास एक पुस्तक

साफ़-सफाई
जरूरी है
घर-बाहर की
चिल्लाती हुई
दादी बाहर निकला आई.

दादा का मुँह
पीला हो गया
खुला रहा गया
देखकर
दादी के हाथ में
धूल भरे मकड़ी के जले
लिपटा लंबी डंडी वाला झाडू.

कई दिनों से
सफाई नहीं हुई
ऐसा नहीं है
रोज धूल जमती है
मकड़ी बच्चे जनती है.

कीड़े-मच्छर
बढ़ने लगे हैं
दीमकों की एक बड़ी फौज
बनती-बढ़ती जा रही है
विचारों का भूसा
काना-अंधा बना रहा है
सफाई की जरुरत है
मेरे मस्तिष्क की.

दादी से
वह लंबी डंडी वाला झाडू
मांगर लाना चाहता हूँ
और
दादा से वह पुस्तक
जिसे पढ़कर
उन्होंने घर बाहर की सफाई
की कला सीखी थी.

Wednesday 20 July 2011

ये टहनियाँ

ये टहनियाँ
कितनी सूखी हुई हैं
पक्षियों का भार
वहन करने का सामर्थ्य
नहीं दीखता इनमें.

पेड़ के नीचे
कईं टहनियाँ टूटी पडी हैं.

ये टहनियाँ अपनी
जवानी की कथा
बुढ़ापे की व्यथा सुनाती हैं.

होम हो कर
अपनी सार्थकता सिद्ध
करने के लिए
आतुरता से प्रतीक्षा करती है.

Sunday 12 June 2011

बाबा रामदेव को समर्पित


वन्देमातरम !

मैं बहुत व्यस्त हूँ
व्यस्त होने का बहाना है मेरे पास.

टी.वी पर देखा
समाचार पत्र में देखा
इंटरनेट पर देखा
लोगों को रोते-बिलखते
औरतों को गिड-गिडाते.

वर्दी और टोपी से पहचाना
खादी और काषाय वस्त्र से पहचाना
यह आज की बात है.

मेरे देश की बात है.

जनता की आवाज में मेरी भी आवाज मिल जाए
मैं अपनी व्यस्तताओं को
जिमेदारियों में बदल सकूं
चित्रों के पीछे के दर्द को
अपना दर्द बना सकूं.

Monday 6 June 2011

लोकतंत्र में तानाशाही


भारत में लोकतंत्र जीवित है? दम तोड़ने के कगार पर है? समझ में नहीं आता. परसों दिल्ली में जो कुछ हुआ है, उसे देख-जानकर मन कुछ उदास हो गया था. दो दिनों से यही हाल है.हिंदी भारत पर आज आदरणीय चंद्रमौलेश्वर जी का मेल देखा. उन्होंने प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के ब्लॉग नया ज़माना पर लिखे लेख की ओर ध्यान आकर्षित किया है. पढ़ा तो खोपड़ी घूम गयी. लेकिन मैं उन की तरह न तो कुतर्की हो सकता हूँ और नहीं बतमीज. इसलिए संभल-संभलकर अपनी राय लिख रहा हूँ.
भगवान भला करे प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी का. संचार माध्यम का अच्छा उपयोग किया है.

देश में अभी अभिव्यक्ति की स्वंत्रता बची हुई है.इसीलिए ये कुछ भी अनाप शनाप लिख रहे हैं. उनके लेखन से तो ऐसा ही लगता है कि वे सरकार की चापलूसी कर रहे हैं. जिस तरह से उन्होंने सरकार और पुलिस की काली करतूतों की वकालत की है, उससे तो यही बात सामने आती है. यदि सरकार सही है और पुलिस अपने काम में इमानदार तो लोगों को भगाने की आवश्यकता ही नहीं थी. जो भीड़ पुलिस को डरकर भाग जाती है, उसे भला भगाने के लिए अन्य राज्यों से पुलिस बुलाने की क्या आवश्यकता पडी.दिल्ली और नायोड़ा में १४४ सेक्शन लगाने की क्या जरूरत महसूस की गयी. सरल, सीधे-सादे लोग थे इसलिए चुपचाप चले गए मगर ये सीधे-सादे, भोले-भाले लोग, भारतीय जन अधिक दिनों तक यह अत्याचार नहीं सहेंगे चाहे पुलिस का या सरकार का. अचानक हमला होने से जंगली शेर भी थोड़ी देर के लिले घबरा जाता है. यह तो हमारे देश की सामान्य जनता है. यही जनता कुछ दिनों पहले अन्ना हजारे के साथ खाड़ी थी. यह आगे भी खड़ी होगी, थोड़ा समय तो दीजिए उसे.

रामदेव बाबा कभी धर्म (रिलिजन) की बात नहीं करते, तो फिर वे और उनका आन्दोलन कैसे साम्प्रादायिक हो गया? इसे तो प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ही स्पष्ट कर सकते हैं.

Sunday 15 May 2011

चुप रहो!

सुन तो मैं
सब कुछ रहा था
बोलना चाहते हुए भी
चुप.....?

मित्र ने कहा-
अरे! तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?
केवल मुस्कुराया
मुस्कान देखकर
वह भी चुप हो गयी।

बहस करने वाले
लोग
चुप हो गए।

मैंने
उठते हुए
अपने -आप से कहना चाहा
लोग बहुत बोलते हैं
काश..!
कभी -कभी
कुछ... करें
चुप रहें.

Friday 13 May 2011

सिक्का उछालके

आओ करें हम फैसला सिक्का उछालके,
तकदीर अपनी सँवार लें सिक्का उछालके|

करोड़ों रुपया खर्च होता है मतदान में,
मंत्री जी का चुनाव करलो सिक्का उछालके| (आओ ..)

जेब खाली कर लेते हैं डॉक्टर इलाज में,
मरीज का हाल जान लो सिक्का उछालके| (आओ ..)

किरकिट मैच खेले क्यूं बेकार थक जाएँगे,
हार-जीत का करो फैसला सिक्का उछालके| (आओ ..)

चीटिंग की तैयारी करवाते हो क्यूँ मास्टरजी,
पास-फेल का रिजल्ट बतादो सिक्का उछालके| (आओ ..)

आओ करें हम फैसला सिक्का उछालके,
तकदीर अपनी सँवार लें सिक्का उछालके|

Wednesday 11 May 2011

स्रवंति, अज्ञेय और मेरी पहली पोस्ट

नमस्ते पाठको.

यह ब्लॉग बनाए मुझे पूरा एक ज़माना हो गया है. लेकिन कोई भी पोस्ट लिखने की हिम्मत नहीं हुई. आदरणीय श्री चंद्रमौलेशवर प्रसाद जी की प्रेरणा से आज पहली पोस्ट लिखने का साहस कर रहा हूँ.

मेरी यह पोस्ट मेरे मन की बात भी है और इसे एक अन्य ब्लॉग पर मेरी प्रतिक्रिया भी माना जा सकता है.

कुछ दिन पहले हैदराबाद में अज्ञेय जी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई थी. आदरणीय गुरुवर प्रो.ऋषभ देव शर्मा जी ने मुझे उस संगोष्ठी के एक सत्र का संचालन करने का अवसर प्रदान किया. मैं उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ. स्रवंति के ब्लॉग पर उसी संगोष्ठी की रिकार्डिंग का लिंक देखा तो बड़ी प्रसन्नता हुई. मन में आया कि उसके संबंध में कुछ लिखूं. वही बात मैंने यहाँ पोस्ट के रूप में दे दी है.

आपकी सेवा में प्रेषित है-

दो-दो बार (१. राष्ट्रीय संगोष्ठी में विद्वानों के बीच बैठकर अज्ञेय को अलग-अलग ढंग से समझने का और २. स्रवंति के ब्लॉग पर संगोष्ठी की रिकार्डिंग सुनने का अवसर) 'अज्ञेय' को 'ज्ञेय' बनाने की कोशिश का हिस्सा बनने का अवसर देने के लिए धन्यवाद.


पढ़ने-पढ़ाने का कार्य करने वाले अर्थात विद्यार्थी, अध्यापक, शोधार्थी और हाँ ! स्वांत सुखाय व्यक्ति शायद संगोष्ठी और पोस्टर प्रदर्शनी में भाग लेकर मेरी तरह ही सोचतें होंगे. यदि नहीं तो उन्हें फिर से एक बार विचार करना ही चाहिए कि इतने विविध दृष्टियों से किसी एक रचनाकार को समझने का प्रयास किया गया, कोई तो महत्त्व की बात होगी. आपके द्वारा प्रेषित इस रिकार्डिंग से ऐसे विचारकों को पुनः विचार करने का अवश्य अवसर मिलेगा. ऐसी आशा है.

जिन्दगी में रिटेक का मौका नहीं मिलता लेकिन यह रिकार्डिंग उस दिन उपस्थित -अनुपस्थित सभी अज्ञेय प्रेमियों को बार-बार रिटेक करने का मौका जरूर देगी. मैं समझता हूँ कि साहित्य के चाहने वालों को अज्ञेय और उन्ही की तरह आधुनिक साहित्यकारों को देखने-समझने की एक नई दृष्टी अवश्य मिलेगी.

इस में कोई शक नहीं कि शोधार्थियों को तो अवश्य लाभ मिलेगा. मेरी राय में तो उन्हें एक बार फिर से तारो ताजा हो कर इस रिकार्डिंग को सुन लेना चाहिए ताकि उन्हें कम से कम निम्न बातें स्पष्ट रूप में समझ में आ जाए -
१. कैसा विषय चुने.
२. विषय अनुसार कैसी और कैसे सामग्री का संकलन करें.
३. अपने चुने हुए विषय को कैसे प्रस्तुत करें.
४. अपनी बात को उदाहरणों के द्वारा प्रामाणित करने का प्रयास कैसे करें इत्यादि.
कहना तो बहुत चाहता हूँ मगर समय का आभाव है इसलिए बस इतना ही बाकी आगे....

और हाँ! मुझे यहाँ प्रो.एम.वेंकटेश्वर जी की बात याद आ गई - उन्होंने संगोष्ठी के समापन सत्र में कहा था कि इस कार्यक्रम की रिकार्डिंग को पी. जी. विभाग के आर्काइव में सुरक्षित रखें ताकि अगले सत्रों के छात्रों को लाभ हो सके. मुझे लगा कि स्रवंति के ब्लॉग पर ये सारे लिंक देकर आपने पूरी संगोष्ठी को विद्यार्थियों के आलावा दूसरे जिज्ञासू पाठकों के लिए भी उपलब्ध कराकर बड़ा उपकार किया है.

मेरे ख़याल से आडियो केसेट से एमपी3 में बदलना और फिर छह-सात घंटे की सामग्री को ब्लॉग पर अपलोड करना आसान काम नहीं रहा होगा.जिन भी छात्रों, प्राध्यापकों या तकनीशीयनों ने इस बड़े काम को अंजाम दिया, मेरी ओर से उन तक नमस्कार पहुंचा दें.

वैसे मेरा भी बहुत मन करता है कि इस सब में अपने गुरुजन का हाथ बटाऊँ लेकिन नौकरी की भाग-दौड में नेट पर कभी-कभी ही आ पाता हूँ.


प्रयास करूंगा कि भविष्य में इस ब्लॉग को चालू रख सकूं...

"बैठो, रहो, पुकारो गाओ

मेरा ऐसा कर्म नहीं

मैं हारिल हूँ

बैठे रहना मेरे कुल का धर्म नहीं." - (अज्ञेय)