दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. यही अकेली ऐसी हिन्दी संस्था है जिसे विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है (राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था). लेकिन इस संस्था के कुल सचिव प्रो.दिलीप सिंह जी (जो मेरे श्रद्धेय गुरु हैं) के लेख में यह पढ़कर बहुत दुःख हुआ, शरम भी आई कि राष्ट्रीय महत्त्व की इस संस्था के प्रति सरकार और जनता दोनों का रुख अत्यंत उपेक्षापूर्ण है.क्या हम इन्टरनेट पर इस संबंध में कोई हस्ताक्षर अभियान नहीं चला सकते? हिंदी भारत के माध्यम से देश के कर्णधारों के कानों तक यह माँग पहुँचाने का कोई तो रास्ता होगा कि सरकार इस तरह हिंदी संस्थाओं और हिंदी को अब और अपमानित न करें.
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Sunday, 2 October 2011
साहित्य : दुनियादारी
सन्दर्भ- हिन्दी भारत पर
'हिंदी साहित्य की अजीबोगरीब दुनिया में यदि आपकी चंद सत्ता केंद्रों से नजदीकी नहीं तो आप लेखक नहीं. दिनेश कुमार की रिपोर्ट'
पर एक विचार
मुझे लगता है कि ये भी हमारी राजनेताओं की तरह बन गए हैं. अपनी आयु के अंतिम पड़ाव पर हैं मगर कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते. अपने होने को दर्ज करने के लिए शक्ति प्रदर्शन से अच्छा तरीका और क्या हो सकता है. ये भी अपनी शक्ति दिखाते रहते हैं. अपने अनुगामियों (फालोअर्स) को लाभ पहुँचाकर.
इस तरह की बातें तो हर क्षेत्र में है. मजुरगिरी, भाईगिरी, नेतागिरी और न जाने किन-किन गिरियों में भाई-भतिजागिरी है. और, अगर लेखकगिरी और साहित्यगिरी में भी इस के पैर फैलने लगे हैं तो 'अनेकता में एकता' में विशवास करने वालों को याने कि हमें शायद अरे नहीं जरुर खुश होना चाहिए कि अब लेखक और साहित्यकार भी भाईगिरी और नेतागिरी जो आज देश की पहचान बनी हुई है, उस में शामिल हो रहे हैं.
हमें इन महानुभावों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि कैसे साहित्य को समाज से जोड़ा जा सकता है. कहते है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज साहित्य का दर्पण. इस कथन को कैसे झुठलाया जा सकता है. लगता है इन साहित्यकारों ने इस कथन को सही साबित करने की ठानी थी. इसीलिए इन्होने वही किया जो समाज में दिखाई दे रहा था. दुनियादारी की बात है भय्या सीखते-सीखते आ जाएगी.
Monday, 6 June 2011
लोकतंत्र में तानाशाही

भारत में लोकतंत्र जीवित है? दम तोड़ने के कगार पर है? समझ में नहीं आता. परसों दिल्ली में जो कुछ हुआ है, उसे देख-जानकर मन कुछ उदास हो गया था. दो दिनों से यही हाल है.हिंदी भारत पर आज आदरणीय चंद्रमौलेश्वर जी का मेल देखा. उन्होंने प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के ब्लॉग नया ज़माना पर लिखे लेख की ओर ध्यान आकर्षित किया है. पढ़ा तो खोपड़ी घूम गयी. लेकिन मैं उन की तरह न तो कुतर्की हो सकता हूँ और नहीं बतमीज. इसलिए संभल-संभलकर अपनी राय लिख रहा हूँ.
भगवान भला करे प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी का. संचार माध्यम का अच्छा उपयोग किया है.
देश में अभी अभिव्यक्ति की स्वंत्रता बची हुई है.इसीलिए ये कुछ भी अनाप शनाप लिख रहे हैं. उनके लेखन से तो ऐसा ही लगता है कि वे सरकार की चापलूसी कर रहे हैं. जिस तरह से उन्होंने सरकार और पुलिस की काली करतूतों की वकालत की है, उससे तो यही बात सामने आती है. यदि सरकार सही है और पुलिस अपने काम में इमानदार तो लोगों को भगाने की आवश्यकता ही नहीं थी. जो भीड़ पुलिस को डरकर भाग जाती है, उसे भला भगाने के लिए अन्य राज्यों से पुलिस बुलाने की क्या आवश्यकता पडी.दिल्ली और नायोड़ा में १४४ सेक्शन लगाने की क्या जरूरत महसूस की गयी. सरल, सीधे-सादे लोग थे इसलिए चुपचाप चले गए मगर ये सीधे-सादे, भोले-भाले लोग, भारतीय जन अधिक दिनों तक यह अत्याचार नहीं सहेंगे चाहे पुलिस का या सरकार का. अचानक हमला होने से जंगली शेर भी थोड़ी देर के लिले घबरा जाता है. यह तो हमारे देश की सामान्य जनता है. यही जनता कुछ दिनों पहले अन्ना हजारे के साथ खाड़ी थी. यह आगे भी खड़ी होगी, थोड़ा समय तो दीजिए उसे.
रामदेव बाबा कभी धर्म (रिलिजन) की बात नहीं करते, तो फिर वे और उनका आन्दोलन कैसे साम्प्रादायिक हो गया? इसे तो प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ही स्पष्ट कर सकते हैं.
Wednesday, 11 May 2011
स्रवंति, अज्ञेय और मेरी पहली पोस्ट
नमस्ते पाठको.
यह ब्लॉग बनाए मुझे पूरा एक ज़माना हो गया है. लेकिन कोई भी पोस्ट लिखने की हिम्मत नहीं हुई. आदरणीय श्री चंद्रमौलेशवर प्रसाद जी की प्रेरणा से आज पहली पोस्ट लिखने का साहस कर रहा हूँ.
मेरी यह पोस्ट मेरे मन की बात भी है और इसे एक अन्य ब्लॉग पर मेरी प्रतिक्रिया भी माना जा सकता है.
कुछ दिन पहले हैदराबाद में अज्ञेय जी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई थी. आदरणीय गुरुवर प्रो.ऋषभ देव शर्मा जी ने मुझे उस संगोष्ठी के एक सत्र का संचालन करने का अवसर प्रदान किया. मैं उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ. स्रवंति के ब्लॉग पर उसी संगोष्ठी की रिकार्डिंग का लिंक देखा तो बड़ी प्रसन्नता हुई. मन में आया कि उसके संबंध में कुछ लिखूं. वही बात मैंने यहाँ पोस्ट के रूप में दे दी है.
आपकी सेवा में प्रेषित है-
दो-दो बार (१. राष्ट्रीय संगोष्ठी में विद्वानों के बीच बैठकर अज्ञेय को अलग-अलग ढंग से समझने का और २. स्रवंति के ब्लॉग पर संगोष्ठी की रिकार्डिंग सुनने का अवसर) 'अज्ञेय' को 'ज्ञेय' बनाने की कोशिश का हिस्सा बनने का अवसर देने के लिए धन्यवाद.
पढ़ने-पढ़ाने का कार्य करने वाले अर्थात विद्यार्थी, अध्यापक, शोधार्थी और हाँ ! स्वांत सुखाय व्यक्ति शायद संगोष्ठी और पोस्टर प्रदर्शनी में भाग लेकर मेरी तरह ही सोचतें होंगे. यदि नहीं तो उन्हें फिर से एक बार विचार करना ही चाहिए कि इतने विविध दृष्टियों से किसी एक रचनाकार को समझने का प्रयास किया गया, कोई तो महत्त्व की बात होगी. आपके द्वारा प्रेषित इस रिकार्डिंग से ऐसे विचारकों को पुनः विचार करने का अवश्य अवसर मिलेगा. ऐसी आशा है.
जिन्दगी में रिटेक का मौका नहीं मिलता लेकिन यह रिकार्डिंग उस दिन उपस्थित -अनुपस्थित सभी अज्ञेय प्रेमियों को बार-बार रिटेक करने का मौका जरूर देगी. मैं समझता हूँ कि साहित्य के चाहने वालों को अज्ञेय और उन्ही की तरह आधुनिक साहित्यकारों को देखने-समझने की एक नई दृष्टी अवश्य मिलेगी.
इस में कोई शक नहीं कि शोधार्थियों को तो अवश्य लाभ मिलेगा. मेरी राय में तो उन्हें एक बार फिर से तारो ताजा हो कर इस रिकार्डिंग को सुन लेना चाहिए ताकि उन्हें कम से कम निम्न बातें स्पष्ट रूप में समझ में आ जाए -
१. कैसा विषय चुने.
२. विषय अनुसार कैसी और कैसे सामग्री का संकलन करें.
३. अपने चुने हुए विषय को कैसे प्रस्तुत करें.
४. अपनी बात को उदाहरणों के द्वारा प्रामाणित करने का प्रयास कैसे करें इत्यादि.
कहना तो बहुत चाहता हूँ मगर समय का आभाव है इसलिए बस इतना ही बाकी आगे....
और हाँ! मुझे यहाँ प्रो.एम.वेंकटेश्वर जी की बात याद आ गई - उन्होंने संगोष्ठी के समापन सत्र में कहा था कि इस कार्यक्रम की रिकार्डिंग को पी. जी. विभाग के आर्काइव में सुरक्षित रखें ताकि अगले सत्रों के छात्रों को लाभ हो सके. मुझे लगा कि स्रवंति के ब्लॉग पर ये सारे लिंक देकर आपने पूरी संगोष्ठी को विद्यार्थियों के आलावा दूसरे जिज्ञासू पाठकों के लिए भी उपलब्ध कराकर बड़ा उपकार किया है.
मेरे ख़याल से आडियो केसेट से एमपी3 में बदलना और फिर छह-सात घंटे की सामग्री को ब्लॉग पर अपलोड करना आसान काम नहीं रहा होगा.जिन भी छात्रों, प्राध्यापकों या तकनीशीयनों ने इस बड़े काम को अंजाम दिया, मेरी ओर से उन तक नमस्कार पहुंचा दें.
वैसे मेरा भी बहुत मन करता है कि इस सब में अपने गुरुजन का हाथ बटाऊँ लेकिन नौकरी की भाग-दौड में नेट पर कभी-कभी ही आ पाता हूँ.
प्रयास करूंगा कि भविष्य में इस ब्लॉग को चालू रख सकूं...
"बैठो, रहो, पुकारो गाओ
मेरा ऐसा कर्म नहीं
मैं हारिल हूँ
बैठे रहना मेरे कुल का धर्म नहीं." - (अज्ञेय)
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