कि वह किसी के घर
अपने बच्चे जने
गंदा करे, अपवित्र करे.
शोर मचाए
दिन-रात
म्याऊँ-म्याऊ.
बिल्लों की गंध घर भर में भर जाए.
दूध के लिए
यहाँ-वहाँ ताक-झाँक करे.
चूहों को ढूँढे
अधमरे चूहों को न पकड़ पाए
मरे चूहों की गंध से घर
भर जाए बार-बार.
बिल्ली तो घर बदलती रहती है
सात घर बदलती है
अपने बच्चों को बचाने
उसे तो हक्का नहीं
किसी एक घर को अपना बनाने
क्योंकि
अंततः वह माँ है, माँ है.
6 comments:
Accha likha hai. Lage raho.... -Dr.Garud Suresh
सही तो है... यह कोई खाला का घर नहीं :)
@ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी
धन्यवाद सर.
@ डॉ सुरेश
धन्यवाद.
बहुत सुन्दर
बिल्ली के माध्यम से ममता का वर्णन अच्छा लगा , बधाई
भाई बाला जी लगभग एक दशक पहले आपकी एक रचना होली के अवसर पर सुनी थी " सिक्का उछाल के "और आपके साथ थे श्री ऋषभ देव शर्मा जी और कविता जी आपके बारे में आदरणीय प्रसाद जी से बात होती रहती है | शुभकामनायें
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